गुरू ग्रह को फ़ायर ब्रिग्रेड क्यों कहते हैं और हमारे जीवन मे इनका महत्व :-
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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार समस्त ग्रहों का बहुत महत्व है। कुंडली में
ग्रह के प्रभाव से व्यक्ति के जीवन में सुख-दुख का आगमन होता है। नौ
ग्रहों की अपनी-अपनी भूमिका होती है। इससे व्यक्ति के जीवन में होने वाले
उतार-चढ़ाव को देखा जा सकता है। गुरु ग्रह को हम बृहस्पति ग्रह के नाम से
भी जानते हैं। जब कुंडली में गुरु ग्रह सही घर में स्थित होते हैं, तो
जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। गुरु ग्रह जीवन में
सकारात्मक ऊर्जा भी प्रदान करते हैं। सकारात्मक व्यक्ति के जीवन में
हमेशा खुशहाली रहेगी।
कुंडली में गुरु को कैसे मजबूत किया जाए :-
गुरू मुख्य रूप से आध्यात्मिकता को विकसित करने का कारक हैं. तीर्थ
स्थानों तथा मंदिरों, पवित्र नदियों तथा धार्मिक क्रिया कलाप से जुडे
हैं. गुरु ग्रह को अध्यापकों, ज्योतिषियों, दार्शनिकों, लेखकों जैसे कई
प्रकार के क्षेत्रों में कार्य करने का कारक माना जाता है. गुरु की अन्य
कारक वस्तुओं में पुत्र संतान, जीवन साथी, धन-सम्पति, शैक्षिक गुरु,
बुद्धिमता, शिक्षा, ज्योतिष तर्क, शिल्पज्ञान, अच्छे गुण, श्रद्धा,
त्याग, समृ्द्धि, धर्म, विश्वास, धार्मिक कार्यो, राजसिक सम्मान देखा जा
सकता है.
. गुरू आशावादी बनाते हैं और निराशा को जीवन में प्रवेश नहीं करने देते
हैं. गुरू के अच्छे प्रभाव स्वरुप जातक परिवार को साथ में लेकर चलने की
चाह रखने वाला होता है. गुरु के प्रभाव से व्यक्ति को बैंक, आयकर,
खंजाची, राजस्व, मंदिर, धर्मार्थ संस्थाएं, कानूनी क्षेत्र, जज,
न्यायाल्य, वकील, सम्पादक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शेयर बाजार, पूंजीपति,
दार्शनिक, ज्योतिषी, वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता होता है.
गुरु के मित्र ग्रह सूर्य, चन्द्र, मंगल हैं. गुरु के शत्रु ग्रह बुध,
शुक्र हैं, गुरु के साथ शनि सम संबन्ध रखता है. गुरु को मीन व धनु राशि
का स्वामित्व प्राप्त है. गुरु की मूलत्रिकोण राशि धनु है. इस राशि में
गुरु 0 अंश से 10 अंश के मध्य अपने मूलत्रिकोण अंशों पर होते है. गुरु
कर्क राशि में 5 अंश पर होने पर अपनी उच्च राशि अंशों पर होते हैं. गुरु
मकर राशि में 5 अंशों पर नीच राशिस्थ होते हैं, गुरु को पुरुष प्रधान
ग्रह कहा गया है यह उत्तर-पूर्व दिशा के कारक ग्रह हैं.गुरु के सभी शुभ
फल प्राप्त करने के लिए पुखराज रत्न धारण किया जाता है. गुरु का शुभ रंग
पिताम्बरी पीला है. गुरु के शुभ अंक 3, 12, 21 है.
गुरु का बीज मंत्र
ऊँ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरुवे नम:
गुरु का वैदिक मंत्र
देवानां च ऋषिणा च गुर्रु कान्चन सन्निभम ।
बुद्यिभूतं त्रिलोकेश तं गुरुं प्रण्माम्यहम ।।
गुरु का जातक पर प्रभाव:-
गुरु लग्न भाव में बली होकर स्थित हों, या फिर गुरु की धनु या मीन राशि
लग्न भाव में हो, अथवा गुरु की राशियों में से कोई राशि व्यक्ति की जन्म
राशि हो, तो व्यक्ति के रुप-रंग पर गुरु का प्रभाव रहता है. गुरु बुद्धि
को बुद्धिमान, ज्ञान, खुशियां और सभी चीजों की पूर्णता देता है. गुरू का
प्रबल प्रभाव जातक को मीठा खाने वाला तथा विभिन्न प्रकार के पकवानों तथा
व्यंजनों का शौकीन बनाता है. गुरू चर्बी का प्रभाव उत्पन्न करता है इस
कारण गुरू से प्रभावित व्यक्ति मोटा हो सकता है इसके साथ ही व्यक्ति साफ
रंग-रुप, कफ प्रकृति, सुगठित शरीर का होता है.
गुरु के खराब होने पर :-
गुरु कुण्डली में कमजोर हो, या पाप ग्रहों के प्रभाव में हो नीच का हो
षडबल हीन हो तो व्यक्ति को गाल-ब्लेडर, खून की कमी, शरीर में दर्द,
दिमागी रुप से विचलित, पेट में गडबड, बवासीर, वायु विकार, कान, फेफडों या
नाभी संबन्धित रोग, दिमाग घूमना, बुखार, बदहजमी, हर्निया, मस्तिष्क,
मोतियाबिन्द, बिषाक्त, अण्डाश्य का बढना, बेहोशी जैसे दिक्कतें परेशान कर
सकती हैं. बृहस्पति के बलहीन होने पर जातक को अनेक बिमारियां जैसे
मधुमेह, पित्ताशय से संबधित बिमारियों प्रभावित कर सकती हैं. कुंडली में
गुरू के नीच वक्री या बलहीन होने पर व्यक्ति के शरीर की चर्बी भी बढने
लगती है जिसके कारण वह बहुत मोटा भी हो सकता है. बृहस्पति पर अशुभ राहु
का प्रबल व्यक्ति को आध्यात्मिकता तथा धार्मिक कार्यों दूर ले जाता है
व्यक्ति धर्म तथा आध्यात्मिकता के नाम पर लोगों को धोखा देने वाला हो
सकता है.
गुरु ग्रह के 12 भावो मे फल –
"शनि क्षेत्रे यदा जीव : जीव क्षेत्रे यदा शनि :,
स्थान हानि करो जीव: स्थानवृद्धि करो शनि: ||
अर्थात - गुरु के क्षेत्र में शनि हो और शनि के क्षेत्र में गुरु हो, तब
गुरु उस स्थान की हानि करता है और शनि उस स्थान के फल में वृद्धि करते
हैं। अर्थात गुरु जहां बैठता है वहाँ हानी करता है जबकि उसकी दृष्टि
जहां भी पड़ती है वहाँ की नकारात्मकता को जड़ से खत्म करता है । इसीलिए इसे
फ़ायर ब्रिग्रेड भी कहते हैं ।
किन्तु फिर भी, ध्यान रखें, हर जगह गुरु हानिकारक नहीं और हर जगह शनि की
स्थिति उस भाव के लिए वृद्धिकारक नहीं होती। क्योंकि फलित ज्योतिष का मूल
सूत्र है -
"भावात भावपतेश्च कारकवशात तत् - तत् फलं योजयेत।"
अर्थात : जिस भाव का विचार करना हो वह भाव, उस भाव में बैठे ग्रह, भावेश
की स्थिति एवं भावकारक की स्थिति के एकत्रित विश्लेषण (Analysis) एवं
संश्लेषण (Synthesis) के आधार पर ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि
संबंधित भाव में बैठे ग्रहों, भावाधिपति एवं भावकारक ग्रह ने सम्मिलित
रूप से उस भाव के संबंध में क्या योजना बना रखी है।
1. लग्न में -
जिस जातक के लग्न में बृहस्पति स्थित होता है, वह जातक दिव्य देह से
युक्त, आभूषणधारी, बुद्धिमान, लंबे शरीर वाला होता है। ऐसा व्यक्ति
धनवान, प्रतिष्ठावान तथा राजदरबार में मान-सम्मान पाने वाला होता है।
शरीर कांति के समान, गुणवान, गौर वर्ण, सुंदर वाणी से युक्त, सतोगुणी एवं
कफ प्रकृति वाला होता है। दीर्घायु, सत्कर्मी, पुत्रवान एवं सुखी बनाता
है लग्न का बृहस्पति।
2. द्वितीय भाव में -
जिस जातक के द्वितीय भाव में बृहस्पति होता है, उसकी बुद्धि, उसकी
स्वाभाविक रुचि काव्य-शास्त्र की ओर होती है। द्वितीय भाव वाणी का भी
होता है। इस कारण जातक वाचाल होता है। उसमें अहम की मात्रा बढ़ जाती है।
क्योंकि द्वितीय भाव कुटुंब, वाणी एवं धन का होता है और बृहस्पति इस भाव
का कारक भी है, इस कारण द्वितीय भाव स्थित बृहस्पति, कारक: भावों नाश्यति
के सूत्र के अनुसार, इस भाव के शुभ फलों में कमी ही करता देखा गया है।
धनार्जन के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना, वाणी की प्रगल्भता, अथवा बहुत कम
बोलना और परिवार में संतुलन बनाये रखने हेतु उसे प्रयास करने पड़ते हैं।
राजदरबार में वह दंड देने का अधिकारी होता है। अन्य लोग इसका मान-सम्मान
करते हैं। ऐसा जातक शत्रुरहित होता है। आयुर्भाव पर पूर्ण दृष्टि होने के
कारण वह दीर्घायु और विद्यावान होता है। पाप ग्रह से युक्त होने पर
शिक्षा में रुकावटें आती हैं तथा वह मिथ्याभाषी हो जाता है। दूषित गुरु
से शुभ फलों में कमी आती है और घर के बड़ों से विरोध कराता है।
3. तृतीय भाव में -
जिस जातक के तृतीय भाव में बृहस्पति होता है, वह मित्रों के प्रति कृतघ्न
और सहोदरों का कल्याण करने वाला होता है। वराह मिहिर के अनुसार वह कृपण
होता है। इसी कारण धनवान हो कर भी वह निर्धन के समान परिलक्षित होता है।
परंतु शुभ ग्रहों से युक्त होने पर उसे शुभ फल प्राप्त होते हैं। पुरुष
राशि में होने पर शिक्षा अपूर्ण रहती है, परंतु विद्यावान प्रतीत होता
है। इस स्थान में स्थित गुरु के जातक के लिए सर्वोत्तम व्यवसाय अध्यापक
का होता है। शिक्षक प्रत्येक स्थिति में गंभीर एवं शांत बने रहते हैं तथा
परिस्थितियों का कुशलतापूर्वक सामना करते हैं।
4. चतुर्थ स्थान में -
जिस जातक के चतुर्थ स्थान में बलवान बृहस्पति होता है, वह देवताओं और
ब्राह्मणों से प्रीति रखता है, राजा से सुख प्राप्त करता है, सुखी,
यशस्वी, बली, धन-वाहनादि से युक्त होता है और पिता को सुखी बनाता है। वह
सुहृदय एवं मेधावी होता है। इस भाव में अकेला गुरू पूर्वजों से संपत्ति
प्राप्त कराता है।
5. पंचम स्थान में -
जातक के पंचम स्थान में बृहस्पति होता है, वह बुद्धिमान, गुणवान,
तर्कशील, श्रेष्ठ एवं विद्वानों द्वारा पूजित होता है। धनु एवं मीन राशि
में होने से उसकी कम संतति होती है। कर्क में वह संततिरहित भी देखा गया
है। सभा में तर्कानुकूल उचित बोलने वाला, शुद्धचित तथा विनम्र होता है।
पंचमस्थ गुरु के कारण संतान सुख कम होता है। संतान कम होती है और उससे
सुख भी कम ही मिलता है।
6. छठे स्थान में -
रिपु स्थान, अर्थात जन्म लग्न से छठे स्थान में बृहस्पति होने पर जातक
शत्रुनाशक, युद्धजया होता है एवं मामा से विरोध करता है। स्वयं, माता एवं
मामा के स्वास्थ्य में कमी रहती है। संगीत विद्या में अभिरुचि होती है।
पाप ग्रहों की राशि में होने से शत्रुओं से पीड़ित भी रहता है। गुरु-
चंद्र का योग इस स्थान पर दोष उत्पन्न करता है। यदि गुरु शनि के घर राहु
के साथ स्थित हो, तो रोगों का प्रकोप बना रहता है।इस भाव का गुरु वैद्य,
डाक्टर और अधिवक्ताओं हेतु अशुभ है। इस भाव के गुरु के जातक के बारे में
लोग संदिग्ध और संशयात्मा रहते हैं। पुरुष राशि में गुरु होने पर जुआ,
शराब और वेश्या से प्रेम होता है। इन्हें मधुमेह, बहुमूत्रता, हर्निया
आदि रोग हो सकते हैं। धनेश होने पर पैतृक संपत्ति से वंचित रहना पड़ सकता
है।
7. सप्तम भाव में -
जिस जातक के जन्म लग्न से सप्तम भाव में बृहस्पति हो, तो ऐसा जातक,
बुद्धिमान, सर्वगुणसंपन्न, अधिक स्त्रियों में आसक्त रहने वाला, धनी, सभा
में भाषण देने में कुशल, संतोषी, धैर्यवान, विनम्र और अपने पिता से अधिक
और उच्च पद को प्राप्त करने वाला होता है। इसकी पत्नी पतिव्रता होती है।
मेष, सिंह, मिथुन एवं धनु में गुरु हो, तो शिक्षा के लिए श्रेष्ठ है, जिस
कारण ऐसा व्यक्ति विद्वान, बुद्धिमान, शिक्षक, प्राध्यापक और न्यायाधीश
हो सकता है।
8. अष्टम भाव में -
जिस व्यक्ति के अष्टम भाव में बृहस्पति होता है, वह पिता के घर में अधिक
समय तक नहीं रहता। वह कृशकाय और दीर्घायु होता है। द्वितीय भाव पर पूर्ण
दृष्टि होने के कारण धनी होता है। वह कुटुंब से स्नेह रखता है। उसकी वाणी
संयमित होती है। यदि शत्रु राशि में गुरु हो, तो जातक शत्रु से घिरा हुआ,
विवेकहीन, सेवक, निम्न कार्यों में लिप्त रहने वाला और आलसी होता
है।स्वग्रही एवं शुभ राशि में होने पर जातक ज्ञानपूर्वक किसी उत्तम स्थान
पर मृत्यु को प्राप्त करता है। वह सुखी होता है। बाह्य संबंधों से
लाभान्वित होता है। स्त्री राशि में होने के कारण अशुभ फल और पुरुष राशि
में होने से शुभ फल प्राप्त होते हैं।
9. नवम स्थान में -
जिस जातक के नवम स्थान में बृहस्पति हो, उसका घर चार मंजिल का होता है।
धर्म में उसकी आस्था सदैव बनी रहती है। उसपर राजकृपा बनी रहती है, अर्थात
जहां भी नौकरी करेगा, स्वामी की कृपा दृष्टि उसपर बनी रहेगी। वह उसका
स्नेह पात्र होगा। बृहस्पति उसका धर्म पिता होगा। सहोदरों के प्रति वह
समर्पित रहेगा और ऐश्वर्यशाली होगा। उसका भाग्यवान होना अवश्यंभावी है और
वह विद्वान, पुत्रवान, सर्वशास्त्रज्ञ, राजमंत्री एवं विद्वानों का आदर
करने वाला होगा।
10. दसवें भाव में -
जिस जातक के दसवें भाव में बृहस्पति हो, उसके घर पर देव ध्वजा फहराती
रहती है। उसका प्रताप अपने पिता-दादा से कहीं अधिक होता है। उसको संतान
सुख अल्प होता है। वह धनी और यशस्वी, उत्तम आचरण वाला और राजा का प्रिय
होता है। इसे मित्रों का, स्त्री का, कुटुंब का धन और वाहन का पूर्ण सुख
प्राप्त होता है। दशम में रवि हो, तो पिता से,चंद्र हो, तो माता से, बुध
हो, तो मित्र से, मंगल हो, तो शत्रु से, गुरु हो, तो भाई से, शुक्र हो,
तो स्त्री से एवं शनि हो, तो सेवकों से उसे धन प्राप्त होता है।
11. एकादश भाव में -
जिस जातक के एकादश भाव में बृहस्पति हो, उसकी धनवान एवं विद्वान भी सभा
में स्तृति करते हैं। वह सोना- चांदी आदि अमूल्य पदार्थों का स्वामी होता
है। वह विद्यावान, निरोगी, चंचल, सुंदर एवं निज स्त्री प्रेमी होता है।
परंतु कारक: भावों नाश्यति, के कारण इस भाव के गुरु के फल सामान्य ही
दृष्टिगोचर होते हैं, अर्थात इनके शुभत्व में कमी आती है।
12. द्वादश भाव में -
जिस जातक के द्वादश भाव में बृहस्पति हो, तो उसका द्रव्य अच्छे कार्यों
में व्यय होने के पश्चात भी, अभिमानी होने के कारण, उसे यश प्राप्त नहीं
होता है। निर्धन , भाग्यहीन, अल्प संतति वाला और दूसरों को किस प्रकार से
ठगा जाए, सदैव ऐसी चिंताओं में वह लिप्त रहता है। वह रोगी होता है और
अपने कर्मों के द्वारा शत्रु अधिक पैदा कर लेता है। उसके अनुसार यज्ञ आदि
कर्म व्यर्थ और निरर्थक हैं। आयु का मध्य तथा उत्तरार्द्ध अच्छे होते
हंै। इस प्रकार यह अनुभव में आता है कि गुरु कितना ही शुभ ग्रह हो, लेकिन
यदि अशुभ स्थिति में है, तो उसके फलों में शुभत्व की कमी हो जाती है और
अशुभ फल भी प्राप्त होते हैं और शुभ स्थिति में होने पर गुरु कल्याणकारी
होता है।
आचार्य राजेश कुमार
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